Sunday 16 February 2014

नरेन्द्र निर्मल

सामान्य अभ्यास से व्यक्तित्व को सबल बनाए

आपका व्यक्तित्व पूरी तरह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह सोचते हैं . ऐसे बहुत से लोग आपको मिल जायेंगे जो इस बात की ज्यादा परवाह करते है कि दूसरे उनके बारे में क्या सोचते हैं . एक सीमा तक तो यह ठीक है लेकिन जब दूसरे लोग आप के निर्णयों को प्रभावित करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि या तो आप दूसरों पर पूरी तरह निर्भर हैं अथवा आप को स्वयं निर्णय लेना नहीं आता . इसका अर्थ यह भी हुआ की आप कोई निर्णय लेकर उसके प्रभावों एवं जवाबदेही से बचना चाहते है . किसी तरह की जोखिम नहीं लेना चाहते. प्रत्येक निर्णय मै जोखिम जरूर होती है और उसका सामना सभी को करना पड़ता है .

निगाह डालने पर आप को ऐसे लोग अपने आसपास ही मिल जायेंगे. विद्यालयों में ऐसे अध्यापक काफ़ी मात्रा में मिल जायेंगे जो छोटा सा कार्य स्वयं करवा सकते है लेकिन वे प्रधानाध्यापक का इंतजार करेंगे और उन्हें बता कर वह काम करंगे. हमारी प्रबंध सम्बन्धी व्यवस्थाए सत्ता अथवा उच्च पदस्थ व्यक्ति पर निर्भर होती है और बाकि लोग निकम्मा होने में गर्व महसूस करते है और कोई योगदान नहीं करते . उन्हें जब कोई काम दिया जाता है तो वे उतना ही करते है जितना उन्हें कहा गया है . धीरे धीरे इस तरह के व्यव्हार की आदत पड़ जाती है और ज़िम्मेदारी लेने का अहसास ही खत्म हो जाता है. यदि प्रधानाध्यापक स्वयं भी इसी तरह को हुआ तो उस स्कूल को बर्बाद होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता. यह तो एक छोटा सा उदाहरण मात्र है लेकिन जिंदगी के हर मोड़ पर समाझ में ऐसे लोग भरे पड़े है . जो लोग जिम्मेदार नहीं होते वे प्राय इस तरह के वाक्य इस्तेमाल करते है :

१ आज बड़े बाबू छुटी पर है आप कल आएं.

२ आप पेपर यही छोड़ दे . एक हफ्ते बाद फ़ोन करके पूछ लेना .

३ आप की फाइल नहीं मिल रही . ढूढ़नी पड़ेगी .

४ आप एक एप्लीकेशन लिख कर दे दे , देखते है क्या हो सकता है ,

आप उपरोक्त चारों वाक्यों में देखेंगे की काम भविष्यकाल काल में होने का आधा अधूरा आश्वासन है . कोई निश्चयात्मक निर्णय नहीं है . यह तो तय है की वर्तमान कल में कोई काम नहीं होगा . इस तरह लोग ज़िम्मेदारी से बच कर अपना व्यक्तित्व कमजोर कर देते है और यही बात घर में उनकी पत्नी और बच्चे भी देखते है और वे भी इसी तरह की आदत को अपने व्यवहार का हिस्सा बना लेते है . इस तरह वे स्वयं , समाज और राष्ट्र का नुकसान करते है , क्या हम स्वयं में कोई सुधार नहीं कर सकते . सारी व्यवस्था लोगों के समूह से मिल कर बनी है , जब व्यक्ति और समूह में सुधार आता है तो राष्ट्र प्रगति करने लगता है . जरा गौर करे कि हम किस तरह विकास में अपना योगदान कर सकते है और अपना व्यक्तित्व भी अच्छा बना सकते है . हमें यह आदत डालनी होगी कि हम “ सब्जेक्टिव “ की बजाय “ ऑब्जेक्टिव” तरीके से बात कहने का अंदाज विकसित करें ताकि हम ऐसा व्यक्तित्व बनाए जिस पर लोग भरोसा कर सकें.

पहली शर्त : पूर्ण ज़िम्मेदारी के साथ आज का काम आज और अभी

हम जिस जगह भी काम करतें हो , हमें यह स्वीकार करना होगा कि यही मेरा घर है अथवा मेरा पूजा स्थल है . जब तक में यहाँ हूं मुझे शत प्रतिशत देना होगा . ज़िम्मेदारी लेनी होगी . निर्णय लेने होंगे . हो सकता है कुछ निर्णय ग़लत हो जाए लेकिन वे हमारे अनुभव का हिस्सा होंगे. लोग हमारा सम्मान करेंगे . लोग हमारे व्यवहार का आदर करेंगे और सच्ची ख़ुशी का अहसास होगा . आप कल्पना कीजिये कि आप हॉस्पिटल में भर्ती है और डॉक्टर अथवा नर्स आप का खयाल नहीं रख रहे , तब क्या होगा , या तो आप ठीक नहीं होंगे अथवा बिना इलाज के मर भी सकते है . इसके विपरीत वे आपका बहुत खयाल रखते है और आप जल्दी ठीक होते है . आपका मन धन्यवाद से भर जाता है. ठीक यही ख़ुशी उन लोगों को होती है जिसे आप से सन्तुष्ट करने वाली सेवा मिलती है . यह अहसास सर्वकालिक है . आप जो देते है वही पाते है .

उपरोक्त उदाहरण का अर्थ क्या है ? इसका मतलब सिर्फ यह है की व्यक्तित्व को सबल बनाने की पहली शर्त है – ज़िम्मेदारी लेना और कार्य स्थल पर शत प्रतिशत योगदान करना . जो काम आज कर सकते है वो काम आज और अभी करना . अगर आप यह आदत सीख लेते है तो कार्य स्थल पर सबसे ज्यादा आदर आपका होगा , अफसर की निगाह में आपकी इज्जत होगी और बड़ी ज़िम्मेदारी हमेशा आपको दी जाएगी क्योकि उन्हें विश्वास होगा कि आप ही वह आदमी है जिस पर भरोसा किया जा सकता है .

दूसरी शर्त : ज्ञान का दायरा बढ़ाएं

ज्ञान सच्ची ताकत है . लोग उस व्यक्ति से राय लेना पसंद करते है जो उन्हें मार्गदर्शन दे सके . केवल वही व्यक्ति किसी को मार्गदर्शन दे सकता है जो बहुत सारे विज्ञानों की पुस्तकें पढता है और अपने ज्ञान को ताजातरीन रखता है . वकत बदलता रहता है और ज्ञान के दायरे भी बदलते रहते है . ज्ञान कोई स्थिर वस्तु नहीं है . ज्ञान नदी की तरह गतिशील होता है. हमेशा ताजातरीन. ज्ञान की प्यास अंनंत होती है .

ज्ञान लेने और सीखने के लिए हाय भी जरूरी है की आप जो जानते है उस पर इतराए नहीं बल्कि जो आप नहीं जानते है उस बारे मे ग़लत बयानी नहीं करे बल्कि कह दे कि आप नहीं जानते . खालीगिलास में पानी तभी भरा जा सकता है जब वह खाली हो. पुरानीं मान्यताओं को छोड़ते जाएँ और अपने मस्तिष्क का गिलास खाली करते रहे वर्ना यह बासी पानी से भर कर सड़ जायेगा. आप जानते ही होंगे की हमारा शरीर हर वक्त कुछ न कुछ त्यागता रहता है . हमारी त्वचा ताजा होती रहती है . हमारे सेल्स मरते रहते है . पुरानी यादें स्मृति से मिटती रहती है और नए अनुभवों को याद रखने की जगह बनती रहती है . स्मृति मे वह याद रहता है जो हम दोहराते है अथवा बार बार अभ्यास करते है . जरा सोचिये , यदि हमें अपने पुराने जन्मो का स्मरण रहता तो क्या हम इस जन्म की खुशियों का आनंद ले पाते . बस पुराने को याद कर रोते रहते जिसे कभी बदला नहीं जा सकता. याद रखे जीवन कोई फिल्म नहीं है जिसका कोई अंश आप सम्पादित कर सकें. कोई दृश्य बदल सके. जीवन इस मायने मे क्रूर है कि वह आपको दूसरा मौक़ा नहीं देता.

लोगों से ज्ञान लेने के लिए बहुत ध्यान से सुनने की कला विकसित करनी पड़ती है . प्राय हम जब दूसरा व्यक्ति बोल रहा होता है तभी हमारा मन उसे क्या उत्तर देना है यह सोचने लग जाता है . यह एक बुरी आदत है जो हमें बचपन से लग जाती है जिसे प्रयास पूर्वक छोड़ना पड़ता है . इस कम के लिए एक विशेष मुद्रा का प्रयोग करें. आप जब भी किसी से बात करें तब अपने हाथों को खुला रखें. शरीर के अंगों को सिकोड़े नहीं बल्कि आरामदायक और खुली मुद्रा रखें. इस विधि से आपका शरीर दूसरों की बातों को ग्रहण करने की स्थिति मे आ जाता है. मानसिक प्रतिक्रियाएं थोड़ी शिथिल हो जाती है और आप ठीक से सुन पाते है . दूसरे व्यक्ति को पूरा सुनने के बाद बात कहने की आदत का अभ्यास करे.

विनम्रता को अपने जीवन मे महतवपूर्ण स्थान दे

केवल वीर व्यक्ति ही विनम्र हो सकता है . विनम्रता वीर का आभूषण है. जल्दबाज और कम सुनने वाला व्यक्ति विनम्र नहीं हो पाता. लोग बहुत जल्दी आपकी इस कमजोरी को पकड़ लेते है और फ़िर आपकी बातों को कोई तवज्जो नहीं देते. अक्सर ऐसे लोगों को बडबोला भी कहा जाता है. अपनी बात को स्थिर भाव से विनम्रतापूर्वक कहने की आदत विकसित करनी पड़ती है . बहुत से डॉक्टर ज्यादा मरीज और पैसा आने पर विनम्रता छोड़ देते है . धीरे धीरे मरीज भी उन्हें छोड़ने लगते है और उन्हें इसका कारण कभी समझ में नहीं आता है . विनम्र होना कमजोर होना नहीं है . आप बुध्द और अंगुलिमाल की कहानी से परिचित ही होंगे . उनकी विनम्रता के आगे एक डाकू की तलवार नतमस्तक हो गई. विनम्र होने का अर्थ है कि आपने गुस्से या क्रोध को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और विवेक के सहारे भावनाओ पर स्वाभाविक नियंत्रण रखते हुए अपनी बात कही . ऐसा करते हुए आप अपने शरीर को व्यर्थ के तनाव से बचाते हुए बहुत सी साईको सोमेटिक बीमारियों से भी बच जाते हैं. मेरा निवेदन है की इन मामूली छोटी छोटी बातों को अपनाकर अपना व्यक्तित्व सबल बनायें.

Sunday 5 January 2014

नए वर्ष की कविता

 

कविता

नरेन्द्र निर्मल

उम्मीद की किरणों से नया वर्ष फूटा

पेड़ से फ़िर एक पत्ता टूटा

तुम जो चाहो तो पेड़ को पानी पिलाओ

या फ़िर पत्ते बुहारो

टहनिया काटो

कुछ तो करो

की पेड़ को लगे उसे भी चाहता है कोई

 

नए वर्ष पर ईश्वर से प्रार्थना करो

कि जो आदमी घर से बाहर जाए

वह लौट कर घर आए

अपने परिवार संग दीपावली ,ईद और बैशाखी मनाए

कोई टेलीविज़न उसके मरने की ख़बर नहीं सुनाए

 

नए वर्ष पर प्रार्थना करो

कि किसी धर्म का कोई नया बाबा

किसी इन्सान को मूर्ख नहीं बनाए

आदमी सिर्फ ईश्वर के आगे सर झुकाये

 

नया वर्ष

इन्सान के लिए खूबसूरत फूल बन कर आए

कस्तूरी मृग सी खुशबू महकाए

नया वर्ष नई उमंगें लाए

उसमे कई वर्ष और जीने की ललक जगाये

Monday 30 December 2013

निरंजननाथ आचार्य सम्मान में उपस्थित अतिथि गण
बाएं  से सर्व श्री मधुसूदन पंड्या , क़मर मेवाड़ी , विष्णु  नागर , देशबंधु आचार्य ,रूप सिंह चंदेल , माधव नागदा।













बाएं  से सर्व श्री विष्णु  नागर,श्रीमतीनागर, नरेंद्र  निर्मल ,रूप सिंह चंदेल।  
 बाएं से - श्री विष्णु  नागर , श्रीमती नागर , श्री  रूप सिंह चंदेल , श्री अशोक आंद्रे।

अवसर था कांकरोली मे आयोजित १५ वा आचार्य निरंजननाथ सम्मान समारोह।  जिसमे श्री  चंदेल सम्मानित किए गए।